— बाबा मायाराम
प्रेरक संस्था ने यहां देसी बीजों के संरक्षण व संवर्धन के लिए विशेष प्रयास किए हैं। संस्था के भिलाई स्थित वसुंधरा केन्द्र में 350 देसी धान की किस्मों का संग्रह है। जिसमें 27 किस्में लाल चावल की, 6 किस्में काले चावल की, 1 किस्म हरे चावल की है। इसके अलावा, इन किस्मों में कम पानी में पकने वाली, ज्यादा पानी में पकनेवाली, लंबी अवधि की माई धान, कम अवधि की हरूना धान इत्यादि शामिल हैं।
खेती-किसानी के संकट की काफी चर्चा होती है, पर इसके विकल्प के तौर पर जो कुछ छोटे व सार्थक प्रयास हो रहे हैं, उनकी चर्चा कम होती है। रचनात्मक खेती के देश भर में कई छोटे-छोटे प्रयास हो रहे हैं, उन पर भी हमें दृष्टि डालने की जरूरत है। इसी तरह का एक प्रयोग छत्तीसगढ़ के गरियाबंद में हो रहा है। इस प्रयोग को देखने-समझने में कई बार गया हूं, वहां के प्रयोग के बारे में विस्तार से चर्चा करना उचित रहेगा, जिससे खेती को समग्रता में समझा जा सके।
राजिम स्थित प्रेरक संस्था ने देसी बीजों की जैविक खेती का काम छत्तीसगढ़ के 7-8 जिलों में किया है। जिसमें धमतरी, महासमुंद, कोंडागांव, बस्तर, कबीरधाम, राजनांदगांव, जांजगीर-चापा, बिलासपुर और कोरबा शामिल है। इनमें से मैंने अधिकांश जिलों में दौरा कर किसानों से बात की है, उनकी खेती देखी है, उनके बीज बैंक देखे हैं।
गरियाबंद इलाके में मैंने कुछ समय पहले दौरा किया था। यहां मुझे प्रेरक संस्था के रामगुलाम सिन्हा ले गए थे। भिलाई गांव में हमने उनके वसुंधरा केन्द्र को देखा, जहां देसी बीजों का संरक्षण व संवर्धन किया जाता है। उनके गुणधर्मों को पहचाना जाता है। किसान कार्यकर्ता कोमलराम साहू ने मुझे कई गांवों में घुमाया। यहां मुख्य रूप से साल व सागौन का जंगल है। पैरी नदी पर सीकासेर बांध है।
यहां घना जंगल और पहाड़ हैं। पैरी नदी और सोढूर नदी यहां की पहचान है। जिले के राजिम में महानदी, पैरी और सोढूर नदी पर पवित्र संगम है, जो एक तीर्थस्थल भी है। यहां प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक मेला लगता है जिसमें बड़ी संख्या में ग्रामीण आते हैं।
संस्था के कार्यकर्ता कोमलराम साहू बताते हैं कि कुछ वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र में जब संकर ( हाईब्रीड) बीजों की धान फसल में बड़े पैमाने पर रोग लगा था, फसल बर्बाद हो गई थी। इसलिए कई किसान उनसे देसी धान की जैविक खेती के बारे में जानने के लिए पास आए। वे उनके गरियाबंद स्थित संस्था के वसुंधरा फार्म में जैव कीटनाशक तैयार करते हैं। जैव कीटनाशक बनाने के लिए ऐसे पौधों की पत्तियां चुनते हैं, जिन्हें मवेशी नहीं खाते। जैसे सीताफल, बेसरम, नीम, करंज फुडहर इत्यादि। इन पौधों के पत्तों से जैव कीटनाशक बनता है। इन कीटनाशक बनाने का प्रशिक्षण वे अन्य किसानों को भी देते हैं। प्रेरक संस्था ने इस विकासखंड के ग्राम हरदी में बीज बैंक भी बनाया है, जहां से किसान देसी बीज ले जाते हैं।
प्रेरक संस्था ने यहां देसी बीजों के संरक्षण व संवर्धन के लिए विशेष प्रयास किए हैं। संस्था के भिलाई स्थित वसुंधरा केन्द्र में 350 देसी धान की किस्मों का संग्रह है। जिसमें 27 किस्में लाल चावल की, 6 किस्में काले चावल की, 1 किस्म हरे चावल की है। इसके अलावा, इन किस्मों में कम पानी में पकने वाली, ज्यादा पानी में पकनेवाली, लंबी अवधि की माई धान, कम अवधि की हरूना धान इत्यादि शामिल हैं। इन किस्मों में जवाफूल, विष्णुभोग, बादशाह भोग, सोनामासुरी, पोरासटका, साठिया, लायचा, डाबर, दूबराज, मासुरी इत्यादि है। इनमें कई किस्मों में औषधि गुण भी हैं। सुगंधित किस्में भी हैं।
यहां बताना उचित होगा कि विश्वप्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक आर.एच. रिछारिया ने अविभाजित मध्यप्रदेश ( जिसमें छत्तीसगढ़ भी शामिल था) से धान की 17 हजार देसी किसानों को एकत्र किया था जिसमें अधिक उत्पादकता देने वाली, सुगंधित व अन्य तरह से स्वादिष्ट किस्में शामिल थीं। डा. रिछारिया चावल की किस्मों के विशेषज्ञ थे। वे मानते थे देसी किस्मों को ही देश में धान की खेती की प्रगति का आधार बनाना चाहिए। उन्होंने पता लगाया था कि धान की किस्मों की विविधता का बहुत अमूल्य भंडार है। धान की विविधता जरूरी है क्योंकि विभिन्न परिस्थितियों के अनुकूल किस्मों को चुनकर उगाया जा सके। उनकी यह सोच आज जलवायु बदलाव के दौर में बहुत ही उपयोगी है। इससे बदलते मौसम के अनुकूल मिट्टी-पानी के हिसाब से खेती में देसी किस्मों का चुनाव कर खेती की जा सकती है। किसान मौसम के अनुकूल खेती पद्धति में भी बदलाव कर सकते हैं।
प्रेरक की एक कार्यकर्ता हैं ताराबाई। वे कनसिंगी गांव की रहनेवाली हैं, जो गरियाबंद से करीब 50 किलोमीटर दूर जंगल के अंदर बसा है। वे देसी बीजों की खेती को बढ़ावा देने का काम 15 गांवों में करती हैं। ताराबाई ने महिला किसानों को जैविक खेती की ओर मोड़ा है। वे कहती हैं उनकी पहल से कई महिला किसान बीज उत्पादक हैं और वे जैव कीटनाशक भी तैयार करती हैं। तनाछेदक, बंकी, ब्लास्ट कीट को मारने में यह दवा काम आती है।
ताराबाई बताती हैं कि देसी बीज मिट्टी पानी और हवा के लिए अनुकूल होता है। उसमें प्रतिकूल मौसम को सहने की क्षमता होती है। अगर हवा आंधी से देसी धान का पौधा नीचे गिर भी जाता है तो वह बाली को ऊपर कर अपने को बचा लेता है। यानी सड़ता नहीं है, जबकि संकर (हाईब्रीड) धान में यह गुण नहीं होता है। देसी धान स्वादिष्ट, मुलायम और पाचक होता है।
प्रेरक संस्था के प्रमुख रामगुलाम सिन्हा बताते हैं कि हमारा उद्देश्य आदिवासियों के जीवन को बेहतर करना है। इस तरह के प्रयास छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचलों में किए जा रहे हैं। इनमें से एक गरियाबंद जिला भी है। यहां कमार आदिवासी हैं, जिन्होंने बैगा आदिवासियों की तरह ही कभी स्थायी खेती नहीं की है, लेकिन बदलते समय में आजीविका के लिए यह जरूरी हो गया है। इसके लिए मिश्रित खेती और बाड़ी को प्रोत्साहित किया जा रहा है। क्योंकि जंगलों से मिलने वाले खाद्य कंद-मूल, मशरूम और हरी पत्तीदार सब्जियों में कमी आ रही है।
वे आगे बताते हैं कि गरियाबंद इलाके में वर्ष 2014 से तरकारियों ( सब्जियों) की खेती की जा रही है। कमार और गोंड के कई परिवार यह काम कर रहे हैं। यह सब देसी बीजों से और पूरी तरह जैविक पद्धति से हो रहा है। इसमें हरी पत्तीदार सब्जियां, फल्लीदार सब्जियां, कंद, मसाले और औषधियुक्त पौधे शामिल हैं।
वे बताते हैं कि इस खरीफ मौसम में हम कोदो, कुटकी, मक्का, कोसरा बाजरा जैसी पौष्टिक अनाजों पर ज्यादा जोर देंगे जिससे किसानों की खाद्य सुरक्षा हो, देसी बीजों का संरक्षण हो, जैव विविधता और पर्यावरण का संरक्षण हो। धान की जल्दी पकने वाली किस्मों का बीज किसानों को बीज बैंक से उपलब्ध कराया जाएगा। किसानों को बाजार से बीज खरीदने की जरूरत नहीं है, बाजार में यह बीज उपलब्ध भी नहीं हैं।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि देसी बीजों की जैविक व प्राकृतिक खेती में काफी संभावनाएं हैं। यह मायनों में उपयोगी है। इससे देसी बीजों का संरक्षण तो होता ही है, मिट्टी-पानी का संरक्षण भी होता है। साथ ही, जैव विविधता और पर्यावरण का संरक्षण भी होता है। आज जब छत्तीसगढ़ में धान की खेती की दो फसलें हो रही हैं, रासायनिक खाद व कीटनाशकों का बेजा इस्तेमाल हो रहा है, तब मिट्टी-पानी के संरक्षण की खेती की उपयोगिता और बढ़ जाती है। देसी बीजों के साथ इससे पारंपरिक ज्ञान का भी संरक्षण होता है। लेकिन क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ने को तैयार हैं।